चाहे उसे निर्भया कहिये या दामिनी या चाहे जो भी नाम रख लीजिए। या फिर भंवरी देवी, प्रिदर्शिनी मट्टू या नैना साहनी। या ऐसे ही वो तमाम अनगिनत नाम जो देश के कोने-कोने में रोज किसी न किसी रूप में यौनिक हिंसा या विभत्सतता की शिकार होती हैं … यह एक लम्बी सूची हो सकती है। पर सवाल अभी भी वहीँ है कि क्या आज समाज में नारी पूर्णतया सुरक्षित है ? क्या तमाम राजनैतिक एवं प्रशासनिक व पुलिस सिस्टम के आश्वासनों, न्यायिक सक्रियता, एनजीओ और सामाजिक संगठनों के प्रदर्शन, प्रिंट मीडिया के रँगे गए पूरे पन्ने, न्यूज चैनल्स की ब्रेकिंग न्यूज एवम कैंडल मार्च जैसी कवायदें भारत देश और यहाँ आने वाली अन्य देश कि महिलाओं को यह आश्वस्त कर सकते हैं कि महिलाएँ अब इस देश में सुरक्षित हैं ? क्या वाकई 'मानसिकता' सिस्टम पर हावी है या यह हमारा दोहरा चरित्र है कि हम कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं.… निर्भया की मौत के एक साल बाद भी यह सवाल अभी भी वहीँ खड़ा है। अभी भी निर्भया और उन जैसी तमाम आत्माएँ हमसे यही सवाल पूछ रही हैं कि क्या हम फिर से मानव योनि में जन्म लें या यूँ ही हमारी आत्मा भटकती रहे ? उन्हें अभी भी इंतजार है उस दिन का जब कोई लड़की घर में, सड़क पर या खेतों में यूँ ही रेप का शिकार नहीं होगी और कह सकेगी कि यह मेरा देश है, यहाँ मेरे लोग हैं और मैं यहाँ पर पूर्णतया सुरक्षित हूँ .....!!
- आकांक्षा यादव
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