
आज से राष्ट्रमंडल खेल आरंभ हो रहे हैं. कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं तो कुछ पक्ष में. विरोध का कारण खेल नहीं बल्कि इन खेलों के पीछे छुपे गुलामी के अवशेष हैं. हम सभी ने देख की किस तरह भारत की राष्ट्रपति क्वींस-बैटन को लेने लन्दन पहुँची. आज भारत एक संप्रभु राष्ट्र है, हमें किसी भी आयोजन के लिए किसी की रहनुमाई की जरुरत नहीं है. मणिशंकर अय्यर, शिवराज सिंह चौहान के विरोध राजनैतिक हो सकते हैं, पर तमाम ऐसे भारतीय हैं, जो इन खेलों को गुलामी के प्रतीक रूप में देखते हैं. गुलामी के प्रतीकों को जितना जल्दी उतार दिया जाय, किसी राष्ट्र के लिए बेहतर ही होगा. वैसे भी राष्ट्रपिता गाँधी जी की जयंती के ठीक अगले दिन राष्ट्रमंडल खेलों की शुरुआत कहीं उस अंग्रेजी मानसिकता का परिचायक तो नहीं है, जो गाँधी जी के सपनों को भुला देनी चाहती है. यहाँ याद आती हैं जनकवि नागार्जुन की एक विलक्षण कविता, जो उन्होंने वर्ष 1961 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के भारत दौरे को इंगित करते हुए लिखी थी.इसमें एक पंक्ति गौरतलब है- बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो।...कहीं गाँधी जी के नाम पर सत्ता का स्वाद चखती कांग्रेस सरकार 'गाँधी जयंती' के अगले दिन इस आयोजन का उद्घाटन करवाकर बापू को छेड़ तो नहीं रही है। सौभाग्यवश यह नागार्जुन जी का जन्म -शताब्दी अवसर भी है, अत: यह कविता और भी प्रासंगिक हो जाती है-
आओ रानी,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की,
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,
यही हुई है राय जवाहरलाल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
आओ शाही बैण्ड बजायें,
आओ बन्दनवार सजायें,
खुशियों में डूबे उतरायें,
आओ तुमको सैर करायें...
उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चांदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिकपाल की,
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,
लोग-बाग बलि-बलि जायेंगे,
दॄग-दॄग में खुशियाँ छ्लकेंगी,
ओसों में दूबें झलकेंगी।
प्रणति मिलेगी नये राष्ट्र के भाल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
बेबस-बेसुध, सूखे-रुखडे़,
हम ठहरे तिनकों के टुकडे़,
टहनी हो तुम भारी-भरकम डाल की,
खोज खबर तो लो अपने भक्तों के खास महाल की !
लो कपूर की लपट,
आरती लो सोने की थाल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो।
प्रेसिडेन्ट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो।
पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो,
पार्लियामेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो।
मिनिस्टरों से शेकहैण्ड लो, जनता से जयकार लो।
दायें-बायें खडे हज़ारी आफ़िसरों से प्यार लो।
धनकुबेर उत्सुक दीखेंगे उनके ज़रा दुलार लो।
होंठों को कम्पित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो।
बिजली की यह दीपमालिका, फिर-फिर इसे निहार लो।
यह तो नयी नयी दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो।
एक बात कह दूं मलका, थोडी-सी लाज उधार लो।
बापू को मत छेडो, अपने पुरखों से उपहार लो।
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की !
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की,
यही हुई है राय जवाहरलाल की,
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !