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मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कुँवारी किरणें


सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

कृष्ण कुमार यादव

20 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

क्या खूब लिखा है…………अलग सोच दर्शाती रचना।

shikha varshney ने कहा…

Woww Beautiful..

Bharat Bhushan ने कहा…

सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

बहुत सुंदर बिंब से निःसृत रचना.

रंजना ने कहा…

वाह ... अद्भुद बिम्ब प्रयोग...

शब्दों चित्रांकन दर्शनीय है...

मन भाई आपकी यह रचना...

VIJAY KUMAR VERMA ने कहा…

नवीन बिम्बों का सुन्दर प्रयोग ...
बहुत ही सुन्दर कविता

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शीर्षक और रचना का जवाब नही!
सुन्दर!

Taarkeshwar Giri ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना हैं आपकी.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

रचना बहुत ही खूबसूरत और अद्भुत बन पड़ी है ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूबसूरती से लिखे एहसास

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

किरणों की अठखेलियाँ, नये रूप में प्रस्तुत आपके द्वारा।

Sunil Kumar ने कहा…

रचना बहुत ही खूबसूरत है जवाब नही!

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।


subah ki kirno ka bahoot hi sunder chitra..........

Dorothy ने कहा…

खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

Unknown ने कहा…

पहली बार इस तरह की कोई कविता पढ़ी. मन को भा गई. भाई कृष्ण कुमार जी को बधाई और आपको इस रचना को पढवाने के लिए आभार.

Unknown ने कहा…

आकांक्षा जी,
आपको और कृष्ण कुमार भाई जी को शादी की छठवीं सालगिरह मुबारक हो और आपकी जोड़ी यूँ ही तरक्की के पथ पर अग्रसर हो. ढेरों शुभकामनायें.

raghav ने कहा…

मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

...के.के.सर ने तो नई उपमाओं के द्वारा कविता में जान ला दी है...बेहतरीन कविता..बधाई.

raghav ने कहा…

शादी की सालगिरह और बिटिया के जन्म दोनों की ढेरों शुभकामनाएं .

Bhanwar Singh ने कहा…

So Romantic Poem..Congts.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।
....क्या खूब लिखा है…………अलग सोच दर्शाती रचना।

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।
...अद्भुत भाव-बिम्ब..बधाई.