अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हर साल बहुत कुछ लिखा-कहा जाता है। हमेशा नई उम्मीदें, नए सपने, नई बातें, नया कुछ कर गुजरने का जज्बा। पर कई बार इसमें एक ठहराव सा भी लगता है। तमाम बातों के बाद हर साल निर्भया और दामिनी कांड होते हैं, बस नाम बदल जाते हैं। पिछले दिनों बीबीसी द्वारा प्रदर्शित डाक्यूमेंटरी में जिस तरह से एक वहशी रेपिस्ट ने इंटरव्यू में अपनी कुत्सित मानसिकता को प्रदर्शित किया है, वह आँखें खोलने वाला है। यह हमारे सिस्टम की पोल भी खोलता है। सिस्टम से लेकर व्यक्ति तक हर किसी की सोच एक जैसी नहीं हो सकती, पर कुछ लोगों की सोच पूरे समाज को शर्मनाक स्थिति में खड़ा कर देती है। दुर्भाग्य यह कि हर गलत चीज के पैरवीकार भी यहाँ बैठे हैं, किसी को पैसा चाहिए तो किसी को नाम। वाकई हमारा समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। हर जरूरत शांत होकर बैठने की नहीं, बल्कि अपनी आवाज़ को बुलंद किये रहने की है, क्योंकि बदलाव जरुरी है !!
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : बदलते दौर में स्त्री
बदलना जरुरी है : शब्दों से बदलाव की कोशिश
क्या नारी अब भी अबला है ?
विश्व महिला दिवस : स्त्री का समुद्र आकाश
महिलाओं की भागीदारी
इण्डिया टुडे : तीन कविताएं- 21 वीं सदी की बेटी, मैं अजन्मी, एक लड़की
(उपरोक्त : विश्व महिला दिवस पर प्रकाशित आकांक्षा यादव की कुछेक रचनाएँ)
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