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शनिवार, 31 अगस्त 2013

अंग्रेजी अख़बारों में 'हिन्दी ब्लागिंग' की चर्चा

अभिव्यक्ति के तमाम साधन हैं, इनमें पत्र-पत्रिकाओं से लेकर ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स तक शामिल हैं। कोई भी माध्यम अन्य  माध्यमों की उपेक्षा नहीं कर सकता। आज हर माध्यम एक-दूसरे का परस्पर पूरक बन चुका है। हिंदी अख़बारों के लिए यह पहले से ही कहता जाता  रहा है कि वे अंग्रेजी से जुडी चीजों को भी उतना ही स्थान देते हैं। ..पर अब प्रतिष्ठित अंग्रेजी अख़बार भी हिंदी से जुडी चीजों को हाथों-हाथ ले रहे हैं। अंग्रेजी अख़बारों में हिंदी ब्लागिंग की भी चर्चा हो रही है।



NET savvy Krishna Kumar Yadav and his wife Akanksha have been contributing to literature through blogging for years now Last year the couple was awarded by the CM with ‘awadh samman’ for new mdeia blogging and ‘blogger of the decade’ award.

ALLAHABAD: The net savvy couple Krishna Kumar Yadav and his wife Akanksha Yadav who have carved a nicha in new media of creativity – blogging – have been selected for International awards ‘Parikalpana Sahitya Samman’ and ‘Parikalpana Blog Vibhusan Award’ respectively by Parikalpana Group for their contributions to literature through blogging.

The coveted awards would be conferred on them during the ‘International Blogging Conference’ to be held on September 13-14 in Rajbhawan at Kathmandu, Nepal. KK Yadav is employed as director postal services in Allahabad region.

Last year the couple was awarded by chief minister Akhilesh Yadav with ‘Awadh Samman’ for new media blogging and ‘Blogger of the decade’ award on completion of 10 years of Hindi Blogging.

“I entered the field of blogging in 2008 with ‘Shabd Srijan Ki or’ and ‘Dakia Dak Laya’ while Akansha started blogging with ‘Shabd Shikhar’ in the same year. Within months, we started receiving response from people across the globe,” said KK Yadav.

The couple’s blogs have also motivated a number of people to enter the field of blogging and provide new dimension to Hindi blogging through their literary creativity.

“My blogs focus on social issues, heart touching poems and informative research articles whereas those of Akanksha touch the issues relating to women, child welfare and society and her creations reflect women empowerment,” added Yadav.

The creations of this couple are published regularly in various reputed papers, magazines and on internet in web magazines. Six books of Krishna Kumar Yadav have also been published, which include collections of poetry and essays, a book on 150-years of India Post and non-fictional work, ‘Krantiyagya: 1857-1947 ki Gatha’. A children book, ‘Jungle me cricket’ is also authored by Yadav.

A creation of Akanksha – ‘Chaand par pani’ – has been published. “It is a proud moment for me and my family members. I started writing glogs to express my literary creativity and am happy that now my blogs are being viewed by hundreds of readers from across the globe,” said Akansha Yadav.

 A number of national as well as international bloggers are expected to be present in this conference to discuss social aspects of new media such as blog, website, webportal and social networking sites.

The couple’s daoughter Akshitaa (Pakhi) was in 2011 awarded ‘Best baby blogger’ award for her glog ‘Pakhi ki duniy’ and is also the youngest ‘National Child Award winner’ of India.
  
(Courtesy: Hindustan Times, 24 August 2013)

(It may be also read at http://activeindiatv.com/miscellaneous/11864-blogger-couple-set-to-receive-intl-award)

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

'सम्मान' की युगल ख़ुशी : ”परिकल्पना साहित्य व ब्लॉग विभूषण सम्मान”

हिंदी ब्लॉगिंग के माध्यम से समाज और साहित्य के बीच सेतु निर्माण के निमित्त मुझे (आकांक्षा यादव) ''परिकल्पना ब्लॉग विभूषण सम्मान'' और पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी को ''परिकल्पना साहित्य सम्मान'' के लिए चुना गया है। यह सम्मान 13-14 सितंबर 2013 को काठमाण्डू में आयोजित "अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन" में प्रदान किया जायेगा। इन सम्मान के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, श्री फल, पुस्तकें अंगवस्त्र और एक निश्चित धनराशि प्रदान किए जाएंगे। इस समारोह में अन्य ब्लागर्स और साहित्यकारों को भी सम्मानित किया जाएगा .....इस चयन के लिए रवीन्द्र प्रभात जी और उनकी पूरी टीम का बहुत-बहुत आभार !!


(इस सम्मान को विभिन्न प्रतिष्ठित अख़बारों ने भी भरपूर कवरेज दिया, उन सभी का आभार। आप भी इन्हें पढ़ सकते हैं।)


हिंदी ब्लॉगिंग के माध्यम से समाज और साहित्य के बीच सेतु निर्माण के निमित्त चर्चित  ब्लागर एवं इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ कृष्ण कुमार यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव को क्रमशः ”परिकल्पना साहित्य सम्मान” व  ”परिकल्पना ब्लॉग विभूषण सम्मान” के लिए चुना गया है। यह सम्मान 13-14 सितंबर 2013 को नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के राजभवन में आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन‘ में प्रदान किया जायेगा। इन सम्मान के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, सम्मान पत्र, श्री फल, पुस्तकें अंगवस्त्र और एक निश्चित धनराशि प्रदान किए जाएंगे। 

     गौरतलब है कि यादव दंपति एक लम्बे समय से साहित्य और ब्लागिंग से अनवरत जुडे़ हुए हैं। अभी पिछले वर्ष ही इन दम्पति को उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा न्यू मीडिया ब्लागिंग हेतु ”अवध सम्मान” और हिन्दी ब्लागिंग के दस साल पूरे होने पर ”दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लागर दम्पति” सम्मान से भी नवाजा गया था। कृष्ण कुमार यादव जहाँ “शब्द-सृजन की ओर“ (www.kkyadav.blogspot.com/) और “डाकिया डाक लाया“ (www.dakbabu.blogspot.com/) ब्लॉग के माध्यम से सक्रिय हैं, वहीं आकांक्षा यादव “शब्द-शिखर“ (www.shabdshikhar.blogspot.com/) ब्लॉग के माध्यम से। इसके अलावा इस दंपत्ति द्वारा सप्तरंगी प्रेम, बाल-दुनिया और उत्सव के रंग ब्लॉगों का भी युगल संचालन किया जाता है। कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव ने वर्ष 2008 में ब्लॉग जगत में कदम रखा और 5 साल के भीतर ही विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लॉग  का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लागिंग को भी नये आयाम दिये। कृष्ण कुमार यादव के ब्लॉग सामयिक विषयों, मर्मस्पर्शी कविताओं व जानकारीपरक, शोधपूर्ण आलेखों से परिपूर्ण है; वहीं नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रुचि रखने वाली आकांक्षा यादव अग्रणी महिला ब्लॉगर हैं और इनकी रचनाओं में नारी-सशक्तीकरण बखूबी झलकता है। गौरतलब है कि इस ब्लागर दम्पति की सुपुत्री अक्षिता (पाखी) को ब्लागिंग हेतु 'पाखी की दुनिया' (www.pakhi-akshita.blogspot.com/) ब्लॉग के लिए सबसे कम उम्र में 'राष्ट्रीय बाल  पुरस्कार' प्राप्त हो चुका है। अक्षिता को परिकल्पना समूह द्वारा श्रेष्ठ नन्ही ब्लागर के ख़िताब से भी सम्मानित किया जा चुका है। 

    लगभग समान अभिरुचियों से युक्त इस दंपति की विभिन्न विधाओं में रचनाएँ देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर निरंतर प्रकाशित होती रहती है। कृष्ण कुमार यादव की 6 कृतियाँ ”अभिलाषा” (काव्य संग्रह), ”अभिव्यक्तियों के बहाने” व ”अनुभूतियाँ और विमर्श” (निबंध संग्रह), इण्डिया पोस्ट: 150 ग्लोरियस ईयर्ज (2006) एवं ”क्रांतियज्ञ: 1857-1947 की गाथा” (2007), ”जंगल में क्रिकेट” (बालगीत संग्रह) प्रकाशित हैं, वहीं आकांक्षा यादव की एक मौलिक कृति ”चाँद पर पानी” (बालगीत संग्रह) प्रकाशित है।








लोकस्वामी (पाक्षिक, 1-15 सितम्बर 2013)

विस्तृत रूप में सम्मानों की सूची परिकल्पना पर देख सकते हैं-

(1) श्री गिरीश पंकज (ब्लॉग: सद्भावना दर्पण ), रायपुर (छतीसगढ़) 
(२) श्रीमती आकांक्षा यादव (ब्लॉग:सप्तरंगी प्रेम ), इलाहाबाद (उ. प्र.)


श्री के के यादव (ब्लॉग : शब्द सृजन की ओर ), इलाहाबाद  (उ. प्र.)
श्री के के यादव का चयनआलेख  वर्ग से किया गया है ।

बुधवार, 28 अगस्त 2013

'ब्लॉग' बनाम 'फेसबुक' की बहस के बीच एक बार फिर से 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन'


फेसबुक के उद्भव ने हिंदी-ब्लागिंग को दोराहे पर खड़ा कर दिया। तमाम लोगों ने फेसबुक को हिंदी ब्लागिंग के समक्ष खतरे से जोड़ दिया। तमाम ब्लागर्स फेसबुक पर न सिर्फ सक्रिय हुए, बल्कि उसी में रमते गए। एक बार फिर से वही सवाल-जवाब कि हिंदी ब्लोग्स पर गंभीर  पोस्ट नहीं आती हैं और यदि आती भी हैं तो उन्हें उचित रिस्पांस (टिप्पणियां) नहीं मिलता। फेसबुक के लाइक और कमेंट्स की बहार ने कईयों को हिंदी ब्लागिंग से फेसबुकिया बना दिया। कम शब्दों में फेसबुक स्टेटस अपडेट कर शाम ताक वाह-वाही मिलने के क्रम ने कईयों को दिग्भ्रमित भी कर दिया। तमाम चर्चित ब्लॉग एक लम्बे समय से अपडेट नहीं हुए हैं। धडाधड बनने वाले कम्युनिटी ब्लॉगों पर सामान्यतया एक ही पोस्ट दिखती हैं। जो कल तक ब्लॉग को देखे बिना बिस्तर पर सोने नहीं जाते थे, उनके लिए ब्लॉग 'अतीत' का स्वप्न बनकर रह गया। 


पर इन सबके बीच भी हिंदी ब्लागिंग से गंभीर रूप से जुड़े हुए लोगों की संख्या कम नहीं हुई। आज भी ब्लॉग पर पोस्ट आती हैं, पढ़ी जाती हैं, चर्चा का विषय बनती हैं, अख़बार इन्हें अपने स्तंभों में ससम्मान स्थान देते हैं। यही क्यों फेसबुक पर नेटवर्क ब्लागिंग के माध्यम से भी ब्लागर्स वहां अपने को अपडेट कर रहे हैं और अपने ब्लॉग-पाठकों की संख्या बढ़ा रहे हैं। सही रूप में देखा जाये तो ब्लॉग और फेसबुक एक दुसरे के विरोधी न होकर परस्पर-पूरक हैं, पर कई लोग इस बात को बिना समझे अभिव्यक्ति के इन दोनों माध्यमों को प्रतिदंधी बनाकर खड़ा कर देते हैं। ...कई ब्लागर्स तो इसी भ्रम में फेसबुक की तरफ उन्मुख हुए, और अपने ब्लॉग को एक लम्बे समय से अपडेट करना भूल ही गए।

 ब्लॉग बनाम फेसबुक का जिक्र इसलिए भी समीचीन लगा, जब एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन के बहाने ब्लॉग की चर्चा होने लगी। आज भी हिंदी ब्लागिंग में ऐसे लोग हैं, जो इस माध्यम को  उसकी ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के लगातार तीसरे साल इस बार अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन का आयोजन आगामी 13-14 सितंबर 2013 को काठमाण्डू में किया जा रहा है और इसके पीछे हैं लखनवी तहजीब से जुड़े रवीन्द्र प्रभात। सौभाग्यवश हिंदी ब्लागिंग 2013 में अपने दस साल पूरा कर चुका  है, ऐसे में इस सम्मलेन की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। इस अवसर पर हिंदी और नेपाली ब्लॉग से जुड़े तमाम लोगों को विभिन्न श्रेणियों में सम्मानित किए जाने की घोषणा हुई है।  परिकल्पना (http://www.parikalpnaa.com/)  पर इसे जाकर विस्तृत रूप में देखा जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लागर सम्मलेन, काठमांडू इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि कईयों ने हिंदी ब्लॉग को गुजरे ज़माने की चीज  बताते हुए और इसे फेसबुक से तुलना करके, इसे हाशिये पर धकेलना का प्रयास किया, ऐसे में इस प्रकार का  सम्मलेन न सिर्फ हिंदी ब्लागिंग से जुड़े लोगों के बीच स्फूर्ति का कार्य करेगा, बल्कि उन्हें एक साथ मिल-बैठकर नए माध्यमों और चुनौतियों के बीच हिंदी ब्लागिंग का सुनहरा भविष्य सुनिश्चित करने का भी भरपूर अवसर देगा .....!! 

राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं ...


'कृष्ण जन्माष्टमी' सिर्फ एक त्यौहार ही नहीं, सन्देश भी है। जिस तरह से समाज में नारी के प्रति दुर्व्यवहार और अत्याचार बढ़ रहे हैं, वह बेहद चिंता का विषय है। नारी के बिना इस जगत की कल्पना भी अधूरी है। भगवान का अर्धनारीश्वर रूप भी इसी का प्रतीक  है। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं तो पार्वती के बिना शंकर। लक्ष्मी के बिना विष्णु अधूरे हैं तो सीता के बिना राम। इनके नामों के उच्चारण में भी पहले 'नारी' का ही नाम याद आता है, मसलन, राधे - कृष्ण। किसी ने क्या खूब लिखा है -

राधा की चाहत है कृष्ण;
उसके दिल की विरासत है कृष्ण;
चाहे कितना भी रास रचा लें कृष्ण;
दुनिया तो फिर भी यही कहती है;
राधे कृष्ण, राधे कृष्ण।

....आप सभी को 'कृष्ण-जन्माष्टमी' पर्व की ढेरों बधाइयाँ !!

शनिवार, 17 अगस्त 2013

प्याज की महंगाई ...आँखें भर आईं

कभी प्याज काटने पर आँखों में आंसू आ जाते थे, पर अब प्याज की महंगाई लोगों की आँखों में आंसू ला रही है। कभी गरीब आदमी तेल-प्याज-नमक के साथ रोटी खाकर अपनी भूख मिटा लिया करता था, पर अब तो लगता है प्याज 'स्टेटस सिम्बल' बन गई है। प्याज की महँगाई को लेकर किसी की यह कल्पना देखिए-


शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

वालीवुड की दोहरी मानसिकता


'चेन्नई एक्सप्रेस' की धूम है। चारों तरफ इसके सौ करोड़ क्लब में शामिल होने की चर्चाएँ जोरों पर है, पर आश्चर्य इस बात पर हो रहा है कि सारा श्रेय शाहरुख़ खान को दिया जा रहा है। मीडिया से लेकर समीक्षक तक शाहरुख़ खान के गुण-गान गा रहे हैं, जबकि इस फिल्म को सुपर-डुपर हिट  बनाने और इस मुकाम तक ले जाने में दीपिका पादुकोण की भी उतनी ही भूमिका है। दीपिका पादुकोण का रोल फिल्म में कहीं से भी शाहरुख़ खान से उन्नीस नहीं है, फिर सारा यश और श्रेय खान को ही क्यों ?

शाहरुख़ ने फिल्म की कास्टिंग में भले ही अभिनेत्री दीपिका का नाम हीरो से पहले दिखाकर शाहरुख़ ने पब्लिसिटी हासिल की हो, पर जब वास्तव में श्रेय देने का समय आया तो शाहरुख़ ने दीपिका का नाम लेना भी मुनासिब न समझा और मीडिया से लेकर समीक्षक तक भी इसका श्रेय देने के लिए खान की जय-जयकार में लगे हुए हैं !

 ऐसे दोहरे मापदंड यही दर्शाते  हैं कि हिंदी फिल्म जगत वालीवुड भले ही प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़ ले, पर अभी भी वह पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त है !!


आजकल आप जो ब्लॉग - फेसबुक पर लिखते हैं, उसे प्रिंट मीडिया में भी जगह मिल रही है।  'वालीवुड की दोहरी मानसिकता' पर प्रकाशित हमारी पोस्ट को अन्य लोगों की  पोस्ट के साथ जनसंदेश टाइम्स  (17 अगस्त, 2013 ) में प्रकाशित किया गया है ....आभार !! 

रविवार, 11 अगस्त 2013

हिंदी फिल्मों/धारावाहिकों में बढती नारी हिंसा बनाम नारी अधिकारों की खातिर सचिन तेंदुलकर का कविता-पाठ


आजकल जब भी पिक्चर हाल में फिल्म देखने जाइये, आरंभ में और मध्यांतर में धूम्रपान के प्रति सचेत करता एक विज्ञापन दिखाया जाता है। हर फिल्म में यह घोषणा की जाती है कि यह धूम्रपान का समर्थन नहीं करती। प्रतीकात्मक ही सही, इसका महत्व तो है ही और कुछेक लोग इससे सीख भी लेते होंगें। समाज में जिस  से नारियों के प्रति हिंसा फ़ैल रही है और कई बार फिल्मों-धारावाहिकों में भी जिस तरह से ऐसे दृश्यों को अतिरंजित करके दिखाया जाता है, क्या वह खतरनाक नहीं है।

मेरे मन में कई बार विचार आता है कि क्यों न सभी फिल्मों के प्रसारण से पूर्व भी नारी-हिंसा के प्रति सचेत करता विज्ञापन दिखाया जाय और फिल्मों/धारावहिकों  में ऐसे दृश्यों के साथ-साथ नीचे यह भी उद्घोषणा की जाय कि वह ऐसी किसी भी हिंसा का समर्थन नहीं करते।

  एक बार यह विचार मैंने अभिनेत्री और सोशल एक्टिविस्ट शबाना आज़मी के साथ भी एक कार्यक्रम में  शेयर किया था, पर उनका जवाब था कि हर फिल्म में ऐसे दृश्य नहीं होते, फिर इसे हर फिल्म के साथ कैसे दिखाया जा सकता है ? ...पर यही बात तो धूम्रपान पर भी लागू  होती है.  खैर, इस पर सहमति-असहमति के तमाम विचार हो सकते हैं ....।

 पर आज यह विचार फिर से  पुनर्जीवित हुआ, जब यह खबर पढ़ी कि मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर अब  महिला अधिकारों की खातिर मराठी में कविता पढेंगें। सचिन तेंदुलकर, निर्देशक और अभिनेता फरहान अख्तर के ‘बलात्कार और भेदभाव के खिलाफ पुरुष’ (मर्द) अभियान के लिए मराठी में कविता पढ़कर महिला अधिकारों के प्रति पुरुषों को जागरुक करने की कोशिश करेंगे. 'मर्द' ने बयान में कहा, ‘मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने महिलाओं के प्रति भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया है. वह महिलाओं का सम्मान करने के लिए पुरुषों में जागरुकता लाने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिये मराठी में विशेष कविता पाठ करेंगे.’

बयान में कहा गया है, ‘सचिन की देश में लोकप्रियता को देखते हुए उनके इस अभियान में शामिल होने से कई लोग इस नेक काम से जुड़ने के प्रति प्रेरित होंगे.’ यह कविता गीतकार और कवि जावेद अख्तर ने लिखी है. इसे मूल रूप से हिंदी में लिखा गया है और इसका तेलुगु, तमिल, पंजाबी और मराठी जैसी विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है. तेलुगु में कविता पाठ टोलीवुड स्टार महेश बाबू करेंगे. तेंदुलकर कविता का मराठी संस्करण पढ़ेंगे जिसका अनुवाद जितेंद्र जोशी ने किया है.

निश्चितत: मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को बल्ले से जोरदार शॉट्स लगाते हुए कई बार देख चुके हैं, लेकिन महिला अधिकारों के लिए उन्हें कविता पढ़ते हुए देखना अलग ही अनुभव होगा ....!!

शनिवार, 10 अगस्त 2013

चक दे इंडिया : 21वीं सदी की नई इबारत लिखती ये लड़कियां

इधर खेल-जगत में दो घटनाओं ने बरबस सबका ध्यान खींचा। पहला, भारतीय महिला हाकी टीम द्वारा पहली बार जूनियर विश्व कप हाकी मे कांस्य पदक जीतना और उभरती हुई बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधू द्वारा विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में पदक सुनिश्चित करने वाली पहली भारतीय महिला एकल खिलाड़ी बनना। इन दो जीतों के बाद 'चक दे इंडिया' और 'भाग मिल्खा भाग' फिल्मों की याद आती है ...सुविधापरस्ती से ज्यादा जरुरी है जज्बा और इस जज्बे के बदौलत ही 21 वीं सदी की ये लड़कियां इस मुकाम को हासिल कर पाई हैं ....उनके इस जज्बे को सलाम और आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में भी यह जज्बा बना रहेगा और लड़कियां यूँ ही नई इबारत लिखती रहेंगीं !!



उभरती हुई बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधू ने 8 अगस्त 2013, शुक्रवार को चीन के ग्वांग्झू में स्थानीय दावेदार चीन की शिझियान वैंग को सीधे गेम में हराकर सेमीफाइनल में जगह बनाने के साथ इतिहास रचते हुए विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में पदक सुनिश्चित करने वाली पहली भारतीय महिला एकल खिलाड़ी बनी।पहली बार विश्व चैम्पियनशिप में हिस्सा ले रही 10वीं वरीय सिंधू को दुनिया की आठवें नंबर की खिलाड़ी और सातवीं वरीय वैंग के खिलाफ अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ी। भारतीय खिलाड़ी ने 55 मिनट में अपने से अधिक अनुभवी वैंग को 21-18, 21-17 से हराया। दुनिया की 12वें नंबर की खिलाड़ी सिंधू सेमीफाइनल में थाईलैंड की रतचानोक इनतानोन और स्पेन की कैरोलिना मारिन के बीच होने वाले मैच की विजेता से भिड़ेंगी।


गौरतलब है कि इससे पहले एकल वर्ग में भारत के लिए एकमात्र पदक प्रकाश पादुकोण ने 1983 में कोपेनहेगन में पुरुष एकल में जीता था। ज्वाला गुट्टा और अश्विनी पोनप्पा की भारतीय महिला युगल जोड़ी ने 2011 में पिछली विश्व चैम्पियनशिप में भारत को कांस्य पदक दिलाया था।


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मोनशेग्लाबाख जर्मनी :  भारत की जूनियर महिला हाकी टीम ने ऐतिहासिक प्रर्दशन करते हुए इंग्लैड को 4 अगस्त 2013, रविवार को सडन डैथ में 3...2 से हराकर एफआईएच जूनियर विश्व कप मे कांस्य पदक जीत लिया।  भारतीय महिला टीम ने पहली बार जूनियर विश्व कप मे कांस्य पदक जीता है। सेमीफाइनल मे हालांकि भारत को हालैड से 0..3 से हार का सामना करना पडा लेकिन युवा लडकियो ने कांस्य पदक मुकाबले मे इंग्लैड के खिलाफ जो जज्बा दिखाया वह भारतीय हाकी की दिशा बदलने का काम करेगा . भारतीय युवा टीम ने क्वार्टर फाइनल मे रैकिंग मे अपने से ऊपर की टीम स्पेन को 4..2 से हराकर पहली बार सेमीफाइनल मे प्रवेश किया. टूर्नामेट मे भारत को तीसरा, इंग्लैड को चौथा, स्पेन को पांचवा और आस्ट्रेलिया को छठा स्थान मिला. अमेरिका सातवे और दक्षिण अफ्रीका आठवे स्थान पर रहा. गौरतलब है कि भारतीय टीम का इससे पहले जूनियर विश्व कप मे र्सवश्रेष्ठ प्रर्दशन 2001 और 2009 मे नौवा स्थान हासिल करना था।

    

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

'ईद' और 'तीज' का सुन्दर समन्वय



त्यौहारों का मौसम चल रहा है। सावन के भीगे-भीगे अहसास के बीच प्रकृति अपने तमाम रंग दिखा रही है। सद्भाव और समरसता का सुन्दर समन्वय दिखा रहा है। आज एक तरफ ईद की खुशियाँ हैं है तो श्रावणी तीज की हरियाली भी। सेवईयों के साथ-साथ घेवर और मिठाइयाँ ...अभी से मुँह में पानी आ रहा है। 


आज के दिन का ऐतिहासिक महत्व भी है, आज ही के दिन 9 अगस्त, 1942 को गाँधी जी ने ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध 'भारत छोड़ो आन्दोलन' आरंभ किया था, सो इसे भी न भूलियेगा। आज के ख़ास दिन की आप सभी को ढेर सारी बधाइयाँ और मुबारकवाद ....!!

बुधवार, 7 अगस्त 2013

अजूबा : जहाँ वृक्ष पर खिलते हैं नारी आकृति वाले 'नारीलता' फूल


प्रकृति के कई रंग हैं। कई बार प्रकृति कुछ ऐसे अजूबे भी उत्पन्न करती है कि उन पर विश्वास करना मुश्किल होता है, ठीक वैसे ही जैसे परियों की कहानियाँ। इसी प्रकार बचपन में हम अक्सर सुना करते थे कि गूलर का फूल होता है, पर वह रात्रि को खिलता है और उसे कोई देख नहीं सकता। इसी तर्ज पर ’गूलर का फूल’ होना जैसी एक कहावत भी है। जिसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब हमारा कोई परिचित एक लंबे समय बाद आँखों से ओझल रहने पर अचानक प्रकट होता है। ऐसी न जाने कितनी किंवदंतियाँ और बातें हैं, जिनके बारे में शत-प्रतिशत दावा करना मुश्किल होता है, पर यही तो हमारी उत्सुकता व रोचकता को बढ़ाते हैं। अक्सर अपने आस-पास हम पेड़-पौधों को तमाम देवी-देवताओं या जीवों की आकृति रूप में देखते हैं। हममें से कितनों ने कस्तूरी मृग देखे हैं, पर कस्तूरी खुशबू के बारे में अक्सर सुनते रहते हैं।


प्रकृति का एक ऐसा ही अजूबा है- ’नारीलता फूल’। नारी की सुदरता का बखान करने के लिए कई बार उसकी तुलना फूलों से की जाती है, पर यहाँ तो बकायदा नारी-आकृति फूल के रूप में पल्लवित-पुष्पित होती है। कहा जाता है कि यह एक दुर्लभ फूल है जो 20 साल के अंतराल पर खिलता है। यह भारत के हिमालय और श्रीलंका तथा थाईलैंड में पाए जाने वाले एक पेड़ में खिलता है। हिमालय में इसे इसके आकार के कारण नारीलता फूल कहा जाता है। जब यह फूल खिलता है तो पूरे पेड़ पर चारों तरफ नारी-आकृति वाले यह फूल लटके रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी ने उन पेड़ों पर ढेर सारी गुडि़या लटका दी हों। वाकई नारी-आकृति वाला यह फूल दुर्लभ एवं प्रकृति की अनमोल कलाकारी है।


यही कारण है कि नारीलता फूल सदैव चर्चा में रहा है। यू-ट्यूब, फेसबुक और गूगल तक पर लोग इसके बारे में चर्चा कर रहे हैं और इसे खोज रहे हैं। कुछेक लोगों का तो ये भी मानना है कि यह किसी इंसान की हरकत है जिसने तमाम गुडि़यों को वृक्ष पर लटका दिया है, तो कुछेक इसे डिजिटल टेक्नालाजी से जोड़-तोड़ की कला बताते हैं। सच क्या है, यह किसी को नहीं पता। आखिर 20 साल का अंतराल कम नहीं होता है। पर जो भी हो प्रकृति की अद्भुत कलाकारी के हमने कई रंग देखे हैं और यह भी उसी में से एक हो तो आश्चर्य नहीं।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

शब्द-शिखर : बदलाव की एक लहर...



जो काम तलवार नहीं कर सकती, वह कलम कर सकती है। दुनिया में हुई क्रांतियों में लेखनी की अहम भूमिका रही है। मौजूदा समाज में जो स्थिति महिलाओं की है, उसे बदलने में भी शब्द अहम भूमिका निभा सकते हैं । आज का ब्लॉग  ’शब्द शिखर’ नारी के प्रति लोगों की सोच में बदलाव की बात करता है। इसमें ब्लॉगर ने समाज में नारी की स्थिति को लेकर मन में चल रहे द्वंद को शब्दों में उतारा है। महिलाओं की हालिया स्थिति में परिवर्तन की मांग को जोर-शोर से उठाया गया है। 

’शब्द शिखर’ ब्लॉग  पर हुई पोस्ट्स से पता चलता है कि ब्लॉगर महिलाओं की स्थिति बदलना चाहती हैं। उन्होंने अपने तरकश में बाणों की जगह शब्दों को रखा है, जिससे वह समाज के लोगों की दकियानूसी सोच को बदल सकें। ब्लॉग  पर महिलाओं से जुडे़ विभिन्न मुद्दों पर अपलोड किए गए लेख और कविताओं से नारी सशक्तीकरण बखूबी झलकता है। ज्यादातर पोस्ट्स में महिलाओं, बच्चों व सामाजिक सरोकरों का विचार-विमर्श है, जो लोगों को जागरूक करने का प्रयास है। 

’शब्द शिखर’ ब्लॉग  की पोस्ट ’पाकिस्तान में अब महिला उड़ाएगी लड़ाकू विमान’ में पाकिस्तान की आयशा फारूक को बदलाव की लहर की तरह प्रस्तुत किया है। इसमें लिखा है कि वक्त के साथ बहुत से पैमाने बदल जाते हैं। जिन रूढि़यों को समाज ढो रहा है, वे दरकती नजर आती हैं। यही वजह है कि अब पाक में भी महिला लड़ाकू विमान उड़ाने जा रही है। 

एक पोस्ट में माँ की महिमा का बखान है। इसमें बताया गया है कि माँ एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें सिर्फ अपनापन व प्यार होता है। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए बेटी की अहमियत कविता के माध्यम से परिभाषित की हैं। 

-आर्यन शर्मा

(6 जुलाई 2013 को पत्रिका के साप्ताहिक स्तंभ me.next के नियमित स्तंभ web blog में शब्द शिखर की चर्चा)


मंगलवार, 23 जुलाई 2013

सावन की बहारों के साथ लोकगीतों की रानी 'कजरी' की अनुगूँज

प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों के साथ तेरा स्वागत है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। प्रतीक्षा के पट खोलती लोकगीतों की श्रृंखलाएं इन खास दिनों में गज़ब सी हलचल पैदा करती हैं, हिलोर सी उठती है, श्रृंगार के लिए मन मचलता है और उस पर कजरी के सुमधुर बोल! सचमुच वह सबकी प्रतीक्षा है, जीवन की उमंग और आसमान को छूते हुए झूलों की रफ्तार है। शहनाईयों की कर्णप्रिय गूंज है, सुर्ख़ लाल मखमली वीर बहूटी और हरियाली का गहना है, सावन से पहले ही तेरे आने का एहसास! महान कवियों और रचनाकारों ने तो कजरी के सम्मोहन की व्याख्या विशिष्ट शैली में की है।

भारतीय परंपरा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। यहां लोक कोई एकाकी धारणा नहीं है, बल्कि इसमें सामान्य-जन से लेकर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, ऋतुएं, पर्यावरण, हमारा परिवेश और हर्ष-विषाद की सामूहिक भावना से लेकर श्रृंगारिक दशाएं तक शामिल हैं। ‘ग्राम-गीत’ की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। लोकमानस के कंठ में, श्रुतियों में और कई बार लिखित-रूप में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होते रहते हैं। पंडित रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-‘ग्राम गीत प्रकृति के उद्गार हैं, इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है। छंद नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति मानो गान करती है। प्रकृति का यह गान ही ग्राम गीत है....।’ इस लोक संस्कृति का ही एक पहलू है-कजरी। ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच कजरी की धाराएं समवेत फूट पड़ती हैं। यहां तक कि जो अपनी मिट्टी छोड़कर विदेशों में बस गए, उन्हें भी यह कजरी अपनी ओर खींचती है, तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है-

रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।


वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है, बल्कि यह सावन के मौसम की सुंदरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु वसंत के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों के संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-

घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी सांवरिया।


छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गए होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं, ताकि कजरी की गूंज उनके प्रीतम तक पहुंचे और शायद वे लौट आएं-

सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आए
रतिया देखी सवनवा ना।


यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं-

गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।


एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियां देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-

सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।


नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परंतु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है।

कजरी के मूलतः तीन रूप हैं-बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिंदास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-

बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।


विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परंपराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसंद करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।


विंध्य क्षेत्र में पारंपरिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर ‌स्त्रियां उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जा सका, क्योंकि इसका कोई तोड़ ही नहीं है। कजरी की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परंपरा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरंभ होता है। स्वस्थ परंपरा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वंदिता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है, केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-

कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।


बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-

हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।


सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु नहीं तड़पेगा, फिर वह चाहे चंद्रमा ही क्यों न हो-

चंदा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।


विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है, फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी-हरी पतियां।


ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है, बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती, बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहां मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलाएं झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुई अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबंधन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरंभ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलाएं खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलाएं समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत गाए जाते हैं।

कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाए रखना है, तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गाई जाती हो, पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूंज सुनाई देती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आज़ादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।


1857 की क्रांति के पश्चात जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा ख़तरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सज़ा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी’ के बोलों में गाती है-

अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।


स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को जगाया और दुश्मन का सामना करने को प्रेरित किया। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।


सुभाष चंद्र बोस ने जंग-ए-आजादी में नारा दिया कि-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-

हरे रामा सुभाष चंद्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झंडा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गांधी आज़ादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातकर उन्होंने स्वावलंबन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नवयुवतियां अपनी-अपनी धुन में गांधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-

अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गांधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।


कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आज़ादी की तरंगें भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-

एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चंद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ों पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
..................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाए चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाए चला
मेलवा घुमाए चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह खास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाए चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाए चला
मेलवा घुमाए चला

उपभोक्तावादी ग्लैमर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो, पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है-सुख का, सुंदरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच, कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परंपरा से जन-जन तक पहुंचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को बचाया जा सकता है।

कजरी! तेरी विशिष्टता के बखान के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं, मैं तेरे और भी विशेषणों के साथ फिर लौटता हूं !!

- (कृष्ण कुमार यादव जी का यह आलेख 'स्वतंत्र आवाज़' पर भी पढ़ सकते हैं)

शनिवार, 29 जून 2013

एक महिला के दिमाग से वैज्ञानिकों ने तैयार किया दिमाग का थ्रीडी मैप


वैज्ञानिकों ने पहली बार इंसानी दिमाग का एक थ्रीडी खाका तैयार किया है। इससे वैज्ञानिकों को भावनाओं के बनने और बीमारियों के वजहों का अधिक गहराई से अध्ययन करने में मदद मिलेगी। बीबीसी न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, 'बिग ब्रेन' प्रोजेक्ट के तहत तैयार किये गये इस थ्रीडी खाके के लिये 65 वर्षीय एक महिला के दिमाग का इस्तेमाल किया गया। वैज्ञानिकों ने इस दिमाग को 20 माइक्रोमीटर की मोटाई वाली 7,400 परतों में बांटा है। इस तरह से वे दिमाग की कोशिकीय संरचना के स्तर तक पहुंच गए।

इस शोध में शामिल रहे मोंट्रियल न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर एलन इवांस ने कहा, आखिरकार विज्ञान ने दिमाग को समझ लिया। इस शोध से दिमाग की आतंरिक संरचना को समझने की दिशा में क्रांति आ जाएगी। उन्होंने यह भी कहा, 'अब तक शोधकर्ता जिस पैमाने पर दिमाग का अध्ययन करते थे, अब उससे 50 गुना अधिक गहराई से उसे पढ़ सकेंगे।'

दिमाग के इस थ्रीडी खाके से ‌दुनियाभर के शोधकर्ताओं को बेहद बारीकी से दिमाग पर शोध करने में मदद मिलेगी। इससे उन्हें भावनाओं के बनने, पहचान क्षमता के विकसित होने तथा बीमारियों के पनपने के कारणों का पता लगाने में मदद मिलेगी। इस शोध को साइंस पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

रविवार, 16 जून 2013

पितृ-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे



आज फादर्स डे है. माँ और पिता ये दोनों ही रिश्ते समाज में सर्वोपरि हैं. इन रिश्तों का कोई मोल नहीं है. पिता द्वारा अपने बच्चों के प्रति प्रेम का इज़हार कई तरीकों से किया जाता है, पर बेटों-बेटियों द्वारा पिता के प्रति इज़हार का यह दिवस अनूठा है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि स्त्री-शक्ति का एहसास करने हेतु तमाम त्यौहार और दिन आरंभ हुए पर पितृ-सत्तात्मक समाज में फादर्स डे की कल्पना अजीब जरुर लगती है.पाश्चात्य देशों में जहाँ माता-पिता को ओल्ड एज हाउस में शिफ्ट कर देने की परंपरा है, वहाँ पर फादर्स-डे का औचित्य समझ में आता है. पर भारत में कही इसकी आड़ में लोग अपने दायित्वों से छुटकारा तो नहीं चाहते हैं. इस पर भी विचार करने की जरुरत है. जरुरत फादर्स-डे की अच्छी बातों को अपनाने की है, न कि पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में उसे अपनाने की जरुरत है.

माना जाता है कि फादर्स डे सर्वप्रथम 19 जून 1910 को वाशिंगटन में मनाया गया। अर्थात इस साल 2013 में फादर्स-डे के 103 साल पूरे हो गए. इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है- सोनेरा डोड की। सोनेरा डोड जब नन्हीं सी थी, तभी उनकी माँ का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में माँ की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे माँ का भी प्यार दिया। एक दिन यूँ ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? ....इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की।1972 में अमेरिका में फादर्स डे पर स्थायी अवकाश घोषित हुआ। फ़िलहाल पूरे विश्व में जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाया जाता है.भारत में भी धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है. इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढती भूमंडलीकरण की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है और पिता के प्रति प्रेम के इज़हार के परिप्रेक्ष्य में भी.

शनिवार, 15 जून 2013

सोच में बदलाव : पाकिस्तान में अब महिला उड़ाएंगी लड़ाकू विमान

वक़्त के साथ बहुत से पैमाने बदल जाते हैं। जिन रुढियों को समाज ढो रहा होता है, वह दरकती नजर आती हैं। अब महिलाएं लड़ाकू विमान भी उड़ाने को तैयार हैं। फ़िलहाल भारत में न सही पडोसी देश पाकिस्तान में ही सही। पाकिस्तान की आयशा फारुख ने भारतीय वायुसेना को पीछे छोड़ दिया है. पुरुषवादी पाकिस्तान की वायुसेना में 26 साल की आयशा फारुख तमाम रूढि़यों को तोड़कर युद्ध के मोर्चे पर जाने के लिए तैयार हैं। वह लड़ाकू विमान उड़ाने वाली पाकिस्तान की पहली महिला लड़ाकू विमान चालक (फाइटर पायलट) बन गई हैं।
आयशा फारुख पिछले एक दशक में पाकिस्तानी वायुसेना में पायलट बनने वाली 19 महिलाओं में से एक हैं। आयशा के अलावा पाकिस्तानी वायुसेना में पांच और लड़ाकू महिला विमान चालक हैं, लेकिन उन्हें युद्ध के मोर्चे पर जाने के लिए अंतिम परीक्षा को पास करना है। हालांकि आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहे पड़ोसी देश भारत में अभी तक कोई महिला फाइटर पायलट नहीं है।
पंजाब के ऐतिहासिक शहर बहावलपुर की मृदुभाषी 26 वर्षीय आयशा कहती हैं कि मुझे नहीं लगता कि महिला या पुरुष होने से एक फाइटर पायलट के काम में कोई फर्क पड़ता है। हाल में पाकिस्तानी लड़कियों के बड़े पैमाने पर सेना में आने के सवाल पर वह कहती हैं कि आतंकवाद और हमारी भौगोलिक स्थितियां के कारण सभी को मुस्तैद रहना जरूरी है।
चीन निर्मित एफ 7पीजी विमान उड़ाने वाली आयशा बताती हैं कि आज से सात साल पहले जब उन्होंने अपनी विधवा मां को एयरफोर्स में जाने की इच्छा बताई थी, तो उन्होंने उन्हें मूर्ख समझा था। कारण हमारे समाज में लड़कियां विमान उड़ाने के बारे में सोचती तक नहीं हैं। पाकिस्तानी वायुसेना में फिलहाल 316 महिलाएं हैं। जबकि पांच साल पहले इनकी संख्या महज सौ थी। वहीं पाकिस्तानी सेना में करीब चार हजार महिलाएं हैं जिनमें ज्यादातर चिकित्सा या कार्यालय संबंधी कार्य कर रही हैं। स्क्वाड्रन 20 की विंग कमांडर नसीम अब्बास ने कहा कि अब समाज की सोच में बदलाव आया है। लड़कियां सेना में शामिल होने के बारे में सोचने लगी हैं। 25 पायलटों वाली इस स्क्वाड्रन में आयशा भी शामिल हैं।
आयशा फारुख ने गुरुवार को राजधानी इस्लामाबाद से लगभग 300 किलोमीटर दूर पंजाब के सरगोधा एयरबेस में फाइटर जेट को उड़ाया. चीन में बने हुये एफ-7पीजी फाइटर जेट को आयशआ ने जब उड़ाया तो उनके चेहरे पर गर्व के भाव थे.
यहां यह गौरतलब है कि भारतीय वायुसेना ने किसी भी महिला को आज तक फाइटर जेट उड़ाने की अनुमति नहीं दी है. अलका शुक्ला और एम पी सुमंती भारतीय सेना की दो ऐसी महिला पायलट हैं, जिन्हें एमआई-8 जैसे मालवाहक हेलिकॉप्टर उड़ाने का गौरव प्राप्त है. लेकिन अब तक इन्हें फाइटर जेट उड़ाने का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है.की   देर-सबेर अपने देश भारत में भी ऐसा होगा। 

मंगलवार, 28 मई 2013

शब्दों से बदलाव की कोशिश



मैं मांस, मज्जा का पिंड नहीं, दुर्गा, लक्ष्मी और भवानी हूँ , भावों से पुंज से रची, नित्य रचती सृजन कहानी हूँ । ये लाइनें आकांक्षा यादव की इच्छा, हौसला और महिलाओं के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी तमन्ना को बयां करने के लिए काफी हैं।  गाजीपुर की मिडिल क्लास फैमिली से बिलांग करने वाली आकांक्षा की बचपन से ही महिलाओं की जिंदगी में बड़ा परिवर्तन  कराने की प्रबल इच्छा रही है। गाजीपुर में फैमिली के साथ रहते हुए किसी लड़की के लिए यह संभव नहीं था, लेकिन 2004 में डाइरेक्टर पोस्टल सर्विसेज के के यादव से शादी के बाद उनकी यह दबी हुई इच्छा जाग्रत हो गई। 

लोक सेवा आयोग के थ्रू  होने वाली लेक्चरर भर्ती में सेलेक्ट होकर वह जीजीआइसी में लेक्चरर बनीं लेकिन जब पाया कि इस नौकरी के चलते वह अपने मकसद से भटक जाएंगी तो उन्होने जॉब  से रिजाइन कर दिया। नारी विमर्श पर उनके मन में चल रहे द्वंद  को उन्होंने  अपने शब्दों के जरिए लोगों को जगाने का काम किया। महिलाओं से रिेलेटेड उनके आर्टिकल देश भर की मैगजीन में पब्लिश्ड हो चुके हैं। दो बुक भी लिख चुकी हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि आनलाइन दुनिया में भी अपने ब्लॉग  में उन्होने महिलाओं की हालिया स्थिति में परिवर्तन की डिमांड को जोर-शोर से उठाया। उनकी ब्लागिंग की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें दशक के श्रेष्ठ  ब्लागर दंपति का अवार्ड मिला ।

आकांक्षा कहती हैं कि वह महिलाओं में बदलाव लाना चाहती हैं। फिलहाल वह अपनी लेखनी से महिलाओं को जगाने का काम कर रही हैं। अगर जरूरत पड़ी तो वह बाहर आकर भी इसके लिए लड़ाई लड़ेंगी।

(आई नेक्स्ट (इलाहाबाद संस्करण) 28 मई 2013 में प्रकाशित )


रविवार, 12 मई 2013

माँ का रिश्ता सबसे अनमोल




माँ दुनिया का  सबसे अनमोल रिश्ता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें सिर्फ अपनापन और प्यार होता है। माँ की इबादत हर दिन भी करें तो भी उसका कर्ज नहीं चुका सकते। कहते हैं ईश्वर ने अपनी जीवंत उपस्थिति हेतु माँ को भेजा। माँ  को खुशियाँ और सम्मान देने के लिए पूरी ज़िंदगी भी कम होती है। फिर भी पूरी दुनिया में माँ  के सम्मान में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को 'मदर्स डे' मनाया जाता है। वैसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो मातृ  पूजा की सनातन परंपरा रही है, पर इसके लिए कोई दिन नियत नहीं होता। हर कोई अपनी माँ से प्यार करता है, फिर किसी एक दिन की क्या ज़रूरत !

अब भारत में भी पाश्चात्य देशों की तरह 'मदर्स डे' एक खास दिवस पर मनाया जाने लगा है। वैश्विक स्तर  पर देखें तो मदर्स डे  का इतिहास सदियों पुराना एवं प्राचीन है। यूनान में बसंत ऋतु के आगमन पर रिहा परमेश्वर की मां को सम्मानित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता था। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की मां मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्योहार मनाने लगा। `मदर्स डे' मनाने का मूल कारण मातृ शक्ति को सम्मान देना और एक शिशु के उत्थान में उसकी महान भूमिका को सलाम करना है।

 मदर्स डे की शुरुआत अमेरिका से हुई। वहाँ एक कवयित्री और लेखिका जूलिया वार्ड होव ने 1870 में 10 मई को माँ के नाम समर्पित करते हुए कई रचनाएँ लिखीं। वे मानती थीं कि महिलाओं की सामाजिक ज़िम्मेदारी व्यापक होनी चाहिए। मदर्स डे को आधिकारिक बनाने का निर्णय अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विलसन ने 8 मई1914 को लिया। 8 मई, 1914 में अन्ना की कठिन मेहनत के बाद तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने और मां के सम्मान में एक दिन के अवकाश की सार्वजनिक घोषणा की। वे समझ रहे थे कि सम्मान, श्रद्धा के साथ माताओं का सशक्तीकरण होना चाहिए, जिससे मातृत्व शक्ति के प्रभाव से युद्धों की विभीषिका रुके। तब से हर वर्ष मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है।  अमेरिका में मातृ दिवस (मदर्स डे) पर राष्ट्रीय अवकाश होता है। अलग-अलग देशों में मदर्स डे अलग अलग तारीख पर मनाया जाता है।

 भारत में भी मदर्स डे का महत्व बढ़ रहा है। इस दिन माँ के प्रति सम्मान-प्यार व्यक्त करने के लिए कार्ड्स, फूल व अन्य  उपहार भेंट किये जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में अभी भी इस दिवस के प्रति अनभिज्ञता है पर  नगरों में यह एक फेस्टिवल का रूप ले चुका है। काफी हद तक इसका व्यवसायीकरण भी हो चुका है। पर माँ तो माँ है। वह अपने बच्चों के लिए हर कुछ बर्दाश्त कर लेती है, पर दुःख तब होता है जब माँ की सहनशीलता और स्नेह को उसकी कमजोरी मानकर उनके साथ दोयम व्यव्हार किया जाता है। माँ के लिए बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जाता है, यह कला और साहित्य का एक प्रमुख विषय भी है, माँ के लिए तमाम संवेदनाएं प्रकट की जाती हैं पर माँ अभी भी अकेली है। जिन बेटों-बेटियों को उसने दुनिया में सर उठाने लायक बनाया, शायद उनके पास ही माँ के लिए समय नहीं है। अधिकतर घरों में माँ की महत्ता को हमने गौण बना दिया है। आज भी माँ को अपनी संतानों से किसी धन या ऐश्वर्य की लिप्सा नहीं, वह तो बस यही चाहती है कि उसकी संतान जहाँ रहे खुश रहे। पर माँ के प्रति अपने दायित्वों के निर्वाह में यह पीढ़ी बहुत पीछे है। माँ के त्याग, तपस्या, प्यार का न तो कोई जवाब होता है और न ही एक दिन में इसका कोई कर्ज उतारा जा सकता है। मत भूलिए कि आज हम-आप जैसा अपनी माँ से व्यव्हार करते हैं, वही संस्कार अगली पीढ़ियों में भी जा रहे हैं।