आपका समर्थन, हमारी शक्ति

सोमवार, 19 जुलाई 2010

आज मन कुछ उदास सा है...

आज मन कुछ उदास सा है। पोर्टब्लेयर आए करीब छह महीने होने जा रहे हैं और इस बीच मैंने अपने अपने पति व बिटिया पाखी के अलावा किसी परिवारीजन का चेहरा नहीं देखा. कल तक जो लोग हमारे करीब थे, वे हमसे दूर कहीं बैठे हैं. टेकनालजी के इतने विकास के बाद भी, फ़ोन, मेल, चैटिंग, कितना भी कर लीजिये, वह अहसास नहीं पैदा होता. जब भी अपनी मम्मी से बात करती हूँ, अक्सर कहती हैं कि कितनी दूर चली गई हो. जब मैं कहती हूँ क़ि यह दूरी मात्र एक छलावा है, भला कानपुर में ही रहकर कितनी बार मायके गई हूँ, पर माँ को कौन समझाये. वे तो यही सोचती हैं क़ि बिटिया दूर चली गई. कानपुर में थी तो वे आ भी जाती थीं, किसी-न-किसी बहाने. पर यहाँ तो अरसा बीत गया. मुझे भी पता है, हमारे लिए दूरी के कोई मायने नहीं हैं. यहाँ से सुबह चलें तो शाम को लखनऊ फ्लाईट से पहुँच जाएँ. पर सम्बन्ध एकतरफा तो नहीं होते. यह सुविधा सामने वाले के साथ भी तो होनी चाहिए. उम्र के इस दौर में बीमारियाँ हमारे बुजुर्गों को अनायास ही घेर लेती हैं. हर मर्ज का इलाज दवा ही नहीं होती, कई बार नजदीकियां और प्यार के दो-शब्द भी काम आते हैं. दुनिया में माँ अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ सहती है, पर बड़े होते बच्चे अपनी दुनिया में रमते जाते हैं.

मैं अपने ही परिवार में देखूं तो तीन भाई और दो बहनों के बीच मैं चौथे नंबर पर हूँ। भरा-पूरा परिवार है हमारा, पर घर पर कोई नहीं. एक भाई IAS हैं, दूसरे पुलिस अधिकारी, तीसरे मल्टीनेशनल कंपनी में. दो बहनों में मैं कृष्ण कुमार जी से ब्याही हूँ, जो भारतीय डाक सेवा के अधिकारी हैं तो छोटी बहन के पति कस्टम-विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर हैं. हम सब चाहते हैं क़ि अपने मम्मी-पापा को वो खुशियाँ दें, जो उन्होंने बचपन में हमें दीं. मुझे याद है, जब मम्मी टाउन एरिया चेयरपर्सन थीं तो भी व्यस्तताओं के बीच हमारी हर छोटी जरूरतें पूरी करती थीं. कभी यहाँ सम्मलेन तो कभी मीटिंग का दौर, पर उनकी प्राथमिकता हम बच्चे ही रहे. पिता जी भी टाउन एरिया के चेयरमैन रहे, साथ में एक राष्ट्रीय पार्टी के जिलाध्यक्ष और फिर राष्ट्रीय कार्य परिषद् के सदस्य. लोग कहते क़ि आप विधायकी/संसदी का चुनाव लड़िये और दिल्ली में रहिये.कई बार टिकट देने की बात भी हुई, पर पिता जी को भी हम बच्चों की चिंता थी क़ि इनकी देखभाल कौन करेगा. नौकर-चाकर आपकी सहायता कर सकते हैं, पर माँ-बाप का स्थान तो नहीं ले सकते. एक भाई IIT में तो दूसरे रूडकी में, तीसरे लखनऊ विश्वविद्यालय में...घर पर थीं हम दोनों बहनें. हमेशा माँ के अंचल से चिपटी यही कहती थीं कि उन्हें कभी भी छोड़कर नहीं जायेंगीं. ॥पर दुनिया का दस्तूर यही है, हर लड़की ब्याहकर अपने घर चली जाती है. फिर अपनी जिम्मेदारियां माँ-बाप को खुद उठानी पड़ती हैं.

कानपुर में देश के एक लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक रहते हैं. भरा-पूरा परिवार, पर साथ में सिर्फ पति-पत्नी. जब भी उनके यहाँ जाइये, अहसास ही नहीं होगा कि वे इतने बड़े लेखक हैं. बड़ी सादगी से उनकी पत्नी चाय बनाकर लाती हैं, फिर दो-तीन प्लेट में नमकीन और मिठाई. साथ बैठकर जिद करेंगीं कि इसे आप पूरा ख़त्म कर देना. अच्छा लगता है यह ममत्व भाव. एक बार उनसे कहा कि आप किसी नौकर को क्यों नहीं रख लेतीं. वह ध्यान से मेरा चेहरा देखने लगीं, मानो कोई गलती कर दी हो. फिर कभी उनसे नहीं पूछा. यही बात एक बार माँ से भी कहने की सोची कि घर में नौकर-चाकरों के होते हुए आपको काम करने की क्या जरुरत है.पलटकर जवाब दिया- मुझे समय से पहले बूढ़ा नहीं होना. हाथ-पांव सक्रिय रहेंगें तो बुढ़ापे में भी काम आयेंगें, किसी के मोहताज नहीं बनाना पड़ेगा. आज सोचती हूँ कि यह उनका स्वाभिमान बोल रहा था या जीवन का एक कटु सच. पर आज वही हाथ-पांव बुढ़ापे में भी तरसते हैं कि बेटा-बहू-बिटिया-दामाद आयें तो फिर ये सक्रिय हों. नाती-पोतों को देखते ही सारा रोग छू-मंतर हो जाता है, हाथ-पांव के सारे दर्द भूल जाती हैं...न जाने कितनी बातें उनसे करती हैं. कई बार हम लोग भले ही बच्चों के व्यव्हार पर चिडचिडे हो जाएँ. पर उन्हें तो इसी में ख़ुशी मिलती है कि उनका कोई पास में है. ये अहसास फोन पर बातें करके तो पूरा नहीं हो सकता.....फिर मेरी उदासी भी जायज है. मम्मी-पापा के पास जाऊगीं तो एक बार फिर वही भरा-पूरा संसार उनको लौटा पाऊँगी. हमारी ख़ुशी के कुछ हिस्से पाकर ही हमारे माँ-बाप कितने खुश हो जाते हैं. ..बस अब इंतजार है एक लम्बे समय बाद मायके लौटने का. ताकि फिर से मम्मी-पापा के चेहरे पर अपनों के पास होने की रौनक देख सकूँ.

22 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

यह सब जिन्दगी के हिस्से है..आते हैं. एडजस्ट करना पड़ता है. खुश रहा करो. मायूसी अच्छी बात नहीं. :)

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत ही मार्मिक अहसास है!
--
मजबूरी का सजीव चित्रण!

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर और मार्मिक अहसास है

संजय भास्‍कर ने कहा…

Maaf kijiyga kai dino bahar hone ke kaaran blog par nahi aa skaa

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

समय आयेगा, सब साथ बैठ सुख दुख बाटेंगे। याद तो घर की आती है।

Unknown ने कहा…

हमारी ख़ुशी के कुछ हिस्से पाकर ही हमारे माँ-बाप कितने खुश हो जाते हैं. ..बस अब इंतजार है एक लम्बे समय बाद मायके लौटने का. ताकि फिर से मम्मी-पापा के चेहरे पर अपनों के पास होने की रौनक देख सकूँ....काफी भावुक हैं आप.

Bhanwar Singh ने कहा…

यह पोस्ट दर्शाती है कि पारिवारिक मूल्यों में आपका विश्वास बरकरार है, अन्यथा लोग तो झाँकने भी नहीं आते. शानदार पोस्ट.

Shahroz ने कहा…

आकांक्षा जी,
आपकी हर पोस्ट कुछ न कुछ सन्देश देती है. जहाँ लोग अपने ब्लॉग पर मात्र पोस्ट बढ़ने और टिप्पणियों के चक्कर में पड़े रहते हैं, वहीँ आपके ब्लॉग पर आकार सुकून मिलता है. बेहद संवेदनशील पोस्ट.

Shahroz ने कहा…

उदासी की छाया छोड़कर कुछ रचें, मन खुश रहेगा...

S R Bharti ने कहा…

बेहद भावुक पोस्ट..यही तो जीवन का सच है.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

उदासी और खुशियाँ जीवन में लगी रहती हैं. माँ-बाप के लिए परिवार के बहुत मायने होते हैं. यही क्या कम है कि इतनी दूर बैठकर आप उनके बारे में अपनी भावनाओं को सभी के साथ शेयर कर रही हैं.

Shyama ने कहा…

खुबसूरत अभिव्यक्ति...कई बार बातें शेयर करने से भी मन हल्का हो जाता है.

editor : guftgu ने कहा…

कई बार जीवन में ऐसे पल आते हैं...

KK Yadav ने कहा…

टेकनालजी के इतने विकास के बाद भी, फ़ोन, मेल, चैटिंग, कितना भी कर लीजिये, वह अहसास नहीं पैदा होता...सामीप्य का कोई विकल्प नहीं.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

आपकी यह पोस्ट पढ़कर हम भी भावुक हो गए.

शरद कुमार ने कहा…

हर मर्ज का इलाज दवा ही नहीं होती, कई बार नजदीकियां और प्यार के दो-शब्द भी काम आते हैं. दुनिया में माँ अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ सहती है, पर बड़े होते बच्चे अपनी दुनिया में रमते जाते हैं....sAHI KAHA APNE.

शरद कुमार ने कहा…

हर मर्ज का इलाज दवा ही नहीं होती, कई बार नजदीकियां और प्यार के दो-शब्द भी काम आते हैं. दुनिया में माँ अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ सहती है, पर बड़े होते बच्चे अपनी दुनिया में रमते जाते हैं....sAHI KAHA APNE.

अंजना ने कहा…

भावुक पोस्ट ,पर क्या करे यही जीवन है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

यह सब जिन्दगी के हिस्से है..आते हैं. एडजस्ट करना पड़ता है. खुश रहा करिए.... मायूसी अच्छी बात नहीं. :)

डॉ टी एस दराल ने कहा…

विकास की कीमत चुकानी पड़ती है आजकल । बीत गए वो दिन सब संयुक्त परिवार होता था । सब एक जगह रहते थे । इस विकास की आंधी ने सब कुछ तितर बितर कर दिया । बस तकनीक का सहारा है जो दूर बैठे भी पास होने का अहसास देता है ।
लेकिन हर हाल में खुश तो रहना ही पड़ता है । यही जिंदगी है ।

Arvind Mishra ने कहा…

मेरा मन भारी हो गया ..चलता हूँ -शुभकामनाएं !

Akanksha Yadav ने कहा…

यही तो ब्लागिंग के फायदे भी हैं. आप लोगों से मन की बात कहकर हल्का हो चला मन ...अपना स्नेह यूँ ही बनाये रहें.