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शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

जब हौसलों की उड़ान बना तबस्सुम का ई-रिक्शा

जीवन में मनुष्य यदि कुछ कर गुजरने की ठान ले तो परिस्थितियाँ आड़े नहीं आती।  इसे सच कर दिखाया है तबस्सुम ने। हरे रंग के बैटरी वाले रिक्शे पर सवार खाकी रंग के पैंट शर्ट और सिर से लेकर कंधे तक चेकदार रुमाल पहने तबस्सुम जब इलाहाबाद शहर की सड़कों और गलियों से गुजरती हैं, तो हर कोई उन्हें अचरज भरी नजरों से देखता है। अचरज लाजिमी भी है क्योंकि रिक्शा चलाते हुए अमूमन पुरुषों को ही देखा जाता है। लेकिन तबस्सुम ने खुद को आत्मनिर्भर बनाने और बेटे को बेहतर शिक्षा देने के लिए झिझक तोड़ी और बैटरी रिक्शा चलाने का निर्णय लिया। झिझक छोड़ अब वे अपने बेटे, मां और भाई की बेटियों का खर्च बैटरी वाला रिक्शा चलाकर उठा रही हैं । तबस्सुम का आत्मनिर्भरता के लिए यह फैसला उन्हें भीड़ में तो अलग पहचान दिला ही रहा है, उन महिलाओं के लिए भी मिसाल है जो जरूरत होने पर भी घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल पाती सिर्फ इसलिए कि ‘हमारा समाज क्या कहेगा’।

रोजगार का यह रास्ता अपना कर तबस्सुम न केवल अपने बेटे अब्दुल्ला को पढ़ा रही हैं बल्कि अपनी मां और भाई की बेटियों का भी खर्च उठा रही है। तबस्सुम अपने बेटे को सीआईडी में भेजना चाहती हैं। जिंदगी में तमाम मुसीबतों झेल चुकी तबस्सुम कहती हैं कि प्रतापगढ़ से वह अपने बेटे के साथ अकेले यहां आईं थी। उस वक्त सिस्टर शीबा ने उनकी मदद की और जिंदगी शुरू करने की राह दिखाई। उन्हीं के साथ रहते हुए तबस्सुम ने कई काम किए। इसके बाद लोगों की मदद से उन्होंने बैटरी रिक्शा चलाना शुरू किया। सुबह से देर रात तक वह रिक्शा चलाती हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर नैनी तक का रास्ता वह तय करती हैं। 

तबस्सुम कहती हैं कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, बस उसे करने की लगन होनी चाहिए। काम तो सिर्फ काम होता है। इसका पुरुष या महिला होने से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए महिलाओं को इस पिछड़ी मानसिकता को छोड़कर आत्मनिर्भर होने के रास्ते खुद तय करने चाहिए। सिस्टर शीबा का कहना है कि तबस्सुम जब शहर आई थी, तो परेशानियों से घिरी थी। उसको हमने बेटे के साथ अपने शेल्टर होम में रखा। तबस्सुम को पढ़ाने लिखाने के साथ ही गाड़ी चलाना भी सिखाया। यह बहुत खुशी की बात है कि तबस्सुम आत्मनिर्भर होने के लिए ई-रिक्शा चला रही है। अपनी एक अलग पहचान बना रही है।


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